कर्मक्षेत्र में बहुत मेहनत
होती है. आप सब जानते हैं. रक्से से रेलगाड़ी चलाने वाले तक. दूध और अख़बार देने वाले
से पंसारी या फिर कहें दैनिक उपयोग की वस्तु वाले व्यापारी तक और अख़बार के दफ्तर
में सवांददाता वाया संपादक से होते हुए अखबार देनेवाले तक.
बहुत मेहनत होती है साहेब.
प्रेस लाइन में कहा जाता है
की फर्मा पहले उठेगा – जनाजा बाद में. यानि की किसी कर्मचारी को अपने किसी परिजन
या फिर परिचित की मृत्यु का भी समाचार मिल जाता है तो वो मशीन पर फर्मा तैयार कर
के जाता है. वही हाल अधिकतर सेवा प्रदाताओं में है. शिक्षक की नौकरी कई मायनोंमें में
सुविधाभोगी समझी जाती है पर उनका भी अपना एक दर्शन है. बालक के भविष्य पर
प्रश्नचिन्ह लग जाता है. किसी शिक्षक का अपना पुत्र या फिर पुत्री नालायक निकलते
हैं तो गाँव में बहुदा यही कहा जाता है की अमुक मास्टर में बालक सही से नहीं
पढाये... उनका भविष्य चोपट कर दिया. उपर वाले ने तो न्याय करना ही था न.
बहुत पेचीदगी होती है. कहा
जाता है कि जिस भी कर्म में हम आये हैं या तो वो हमारी किस्मत में लिखा है अथवा
पुराने कर्मों का लेखा जोखा पूरा करने के लिए परमात्मा ने हमे इस जगह बिठाया है ताकि
हम पूर्व जन्म में अर्जित या फिर बकाया कर्मों की यहाँ पूर्ति कर सकें.
देखो जी, कई बार आपके
कार्यालय में ऐसे लोग भी होते हैं जो आपसे ऊँची पोस्ट पर विराजमान होते हैं..पर
काम आपके पासंग भी नहीं करते. आप उन सब को लेकर टेंसन मत कीजिए. उनके कर्म है.
पिछले जन्म में कुछ ज्यादा अर्जन हो गया था – इस जन्म में मौज लेकर बराबर कर रहे
हैं. उसी दफ्तर में कुछ और भी कर्मी दिखते होंगे – जो दिन रात खटते रहते हैं और
उसके बाद भी अधिकारियों की डांट खाने को विवश रहते हैं. – माफ़ कीजिए, मामला जाती हो
जाता है पर जरा इस दूसरी केटेगरी की पारिवारिक दशा देखने को मिले तो कृपया इनका
उपहास न उड़ायें क्योंकि ऐसे लोग दिन भर दफ्तर में खटने के बाद घर में आराम नहीं
पाते हैं. वहां भी इन्हें आराम नहीं.
कर्मों की अपनी गति साहेब.
मुद्दे पर आता हूँ.
सुचना का युग है – बोले तो
आई टी. इन्फोर्मेशन तकनीक. सूचनाएं सेकेंटों में पहुँचती है. और मेरे जैसे आम आदमी
के लिए सुचना का मतलब टीवी है. टीवी पर कार्यकर्म प्रस्तुत करने का ये नैतिक
दायित्व बनता है कि वो सुचना को बिना हींग छोंक लगाये प्रस्तुत करे. पर आज का
मीडिया अजब हो चूका है. बोले तो निव्ज़ नहीं विव्ज़. यानि अपनी समझदानी मेरे जैसे
सामान्य दर्शक पर उड़ेल दो. ताकि मैं कल कहीं बात करूँ और आपके चेनल का हवाला दूँ
... कि अमुक चेनल पर अमुक प्रोग्राम में बोला गया था. कर्म को समझो भाई. मैं भी
समझ रहा हूँ. आपको देश देख रहा है. ऐसा मत करो कि इस जन्म में तो झूठ बोल बोल कर
रोज़ी रोटी कर प्रबंध कर दिया और अगले जन्म से पूर्व धर्मराज फिर से पूछे ... भिया
अगले जन्म में फिर से रिपोर्ट / एंकर बनाना चाहते हो क्या ?
रविश जी, मुआफ कीजिए...
आपसे ब्लॉग्गिंग से जुड़े है सो नाम ले रहे हैं.** एक बार ट्विटर का शौंक चड़ा था और
आपको फॉलो किया था. आपने मोदी के समर्थकों को नेटी घुडसवार का नाम दिया था. आप में
हुनर है – मुंह पिचकाने का / किसी की भी खिल्ली उड़ाने का. महीने में ४०-४५ पोस्ट
लिख कर पोस्ट दर पोस्ट मोदी की बखिया उधेड़ रहे है. अमा सीधे सीधे अविनाश आशुतोष जी की तरह
राजनीति में आ जाइए.
बुरा क्या है ? टीवी पर वैसे ही दिखना है. मुझे आशुतोष बढ़िया लग रहे हैं. कम से कम सामने तो हैं. आर पार के मूड में तो हैं. लोकसभा चुनाव में लड़ कर जीतकर मंत्री तो पद लेना चाहते हैं... बुरा क्या है. जनता को गुमराह तो नहीं कर रहे. जो है सामने हैं.
बुरा क्या है ? टीवी पर वैसे ही दिखना है. मुझे आशुतोष बढ़िया लग रहे हैं. कम से कम सामने तो हैं. आर पार के मूड में तो हैं. लोकसभा चुनाव में लड़ कर जीतकर मंत्री तो पद लेना चाहते हैं... बुरा क्या है. जनता को गुमराह तो नहीं कर रहे. जो है सामने हैं.
पर कई लोग यथार्थवादी है. जानते
हैं. दिल्ली दूर है. पर फिर भी दिल्ली अपनी है. अभी से राज्यसभा की तरफ निगाह गडाए
हुए हैं. ईश्वर इनको सद्बुद्धि दे.
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आशुतोष साहेब आप कल वहीं थे. पत्रकारिता छोड़ने के बाद किसी सामजिक संगठन में काम करते ताकि नेतृत्व के गुण भी आप में आ जाते और अपनी हुल्ल्द्बाज़ कार्यकर्ताओं, विधायकों और भावी सांसदों को कुछ कंट्रोल कर पाते. जो हुआ अच्छा नहीं हुआ. मैंने जब होश संभाला तो ९२ का आन्दोलन देखा था. उस समय उम्र थी २२ वर्ष. आडवानी समस्तीपुर में गिरफ्तार हुए – नहीं देखा किसी कार्यकर्ता ने कहीं पथराव किया हो या फिर धरना दिया हो - रविश जी आपको भी याद होगा. शायद भाजपा के नपुंसक कार्यकर्ता है. ‘आप’ की तरह उदेव्लित नहीं या फिर ये कहा जा सकता है कि नया मुल्ला अल्ला अल्ला ज्यादा करता है. और शुक्र है उस समय सूचनाओं का ऐसा एकतरफा तंत्र नहीं था.
** रविशजी के क़स्बा में @ कमेंटबाज़ उनके घर के सदस्य लगते हैं. अत: ये हक है लिखने का बोलने क्या क्योंकी वो
कह चुके हैं कि “विचारों की मॉनिटरिंग करने वाले
संस्थानों से मुझे कोई सहानुभूति भी नहीं।“
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जी फिल्म देखने गया था.
पीवीआर में वीरवार को १०० रुपे की टिकट मिलती है. काउन्टर पर बाँदा माइक लिए बैठा
था. मैंने तीन बार एक एक एक करके बोला... उसके बाद वो बेशर्मी से बोला सर बस एक
टिकट चाहिए??
मैं नहीं समझ पाया.
शादी के साइड इफ़ेक्ट तो मालूम
थे, पर मूवी अकेले देखना वो भी किसी सिनेप्लेक्स पर!! नहीं ? वो आज मालूम पड़े ... अत: इंटरवेल मैं ही भाग
आया. – चालीस पार के लोगो के लिए ये फिल्म बिलकुल बकवास है खासकर इंटरवेल तक
(क्योंकि मैंने तभी तक देखी). बीच फिल्म से भाग आया ..;) और फिल्म देखने से पोस्ट लिखना अच्छा समझा.
जय राम जी की.
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