25 अप्रैल 2011

भावना - दुर्भावना


वो बहुत भावुक इंसान था .... शराब पीकर भावना में बह कर रोता था। लोग उसे पागल या फिर सनकी कहते थे। कोई उसे विशप्त प्रेमी या फिर सेंटी कहता था। अभी तक उस भावना का पता नहीं चला जिसके चक्कर में वो भावुक इंसान रोया करता था। उसके रोने से जो पानी निकलता - वह भी सरस्वती नदी की तरह गालों पर आते आते लुप्त हो जाता था। उसके दो चार शुभचिंतक मित्र भी थे जो गलियों में मारे मारे उस भावना को ढुंढते फिरते - पर भावना नहीं मिली। और उस भावुक इंसान शराब पीकर रोना चालू रहा।

‘लगता है हमारा भावुक मित्र - बेकार ही भावना की जिद्द करता है - जबकि अब तो ऐसा लग रहा है कि इस नाम की काई भी लड़की आस पास के इलाके में नहीं है’

नहीं भाई ढुंढना तो पड़ेगा - हम दोनों दो अलग अलग दिशा में जाते हैं और एक माह तक भावना को ढंूढेगे। जिससे पहले मिल जाए वा दूसरे को मिस काल देगा। ताकि दुसरा वापिस आ जाए।

और दोनो मित्र भावना को ढुंढने निकल पड़े। भावुक इंसान वहीं पत्थर बन बैठा रहा - शराब पीता रहा और आंसू निकालता रहा जो उसके गालों पर आकर लुप्त हो जाते - ठीक सरस्वती नदी की तरह।

उस रोज भावना ने उसके इन्हीं गालों पर छुआ था - और ये गाल दहक उठे थे। वो बैचेन हो गया। समझ नहीं आया कि मेरे गाल ऐसे अंगारे मानिंद कैसे तपने लग गये - जबकि बाकि शरीर बिल्कुल ठंडा है। दो-चार रोज बाद उसे से ये परेशानी सहनी मुश्किल हो गई। अतः हकीम लुकमान के पास गया। 

बिमारी बहुत पैचिदा निकली....... लुकमान साहेब बहुत परेशान हुए। उसने पूर्वांचल के किसी बाबा के पास उस भावुक इंसान को भेज दिया। बाबा पहुंचे हुए संत फकीर थे। देश के कई बेइमान और ईमानदारी का ढ़ोंग करने वाले राजनीतिज्ञों का उनके पास आना जाना था। और बाबा को बहुत मानते थे। अपने आश्रम में एसी के आगे गऊ के गोबर से पुते हुई फर्श पर उनका बैठने का स्थान था। और उन्होंने ही एक नामी गिरामी सिने कलाकार को अपने लिए हिरण की खाल लाने का आदेश दिया था। 

वो भावुक इंसान जब बाबा के सामने पहुंचा तो बाबा मृगचर्म आसन पर विराजमान थे। बाबा ने सामने बैठने का इशारा किया और वो सामने बैठ गया। जमीन पर गोबर का गीलापन उसने महसूस किया। मरीज को देखा - और शिष्य को इशारा किया। शिष्य तुरंत सोमरस भरा कमंडल लेकर आ गया। और उसे पीने को दिया - और एक कागज का टुकड़ा भी लिख कर दे दिया। 

भावुक इंसान घर आया, दो चार रोज उसके घर के बाहर सोमरस के गैलन आने लगे पता चला सोमरस बनाने की कंपनी का मालिक भी बाबा का भक्त था और हर वर्ष की संध्या पर जब वह नए कलेंडर छपवाता और मॉडल को बाबा की सेवा में भेज देता था।

अब भावुक इंसान शराब पीता और आंसू निकालता और उसके गालों पर आते आते लुप्त हो जाते।

दोनो मित्र घूम फिर कर वापिस आ गये बिना स्लाईस ऑफ इटेली का पिज्जा खाये - मॅकडानल पर खाया था। और भावना फिर भी नहीं मिली - मायूसी अपने चरम पर थी। 

पर बाबा अंतरयामी थे - बैठे तो दूर थे पर जान सब कुछ रहे थे- भावना अब नहीं रही थी - वह  दुर्भावना हो गई थी - पर पगले भावुक इंसान को कौन समझाये - अतः उस को शराब की आदत डाल दी।

अब भावुक इंसान भावना को भूल चुका था। आंसूओं ने उसके गालों को ठंण्डा कर दिया - साथ ही उसका जमीर भी ठण्डा हो गया था। अब वह शराब पीकर  दुर्भावना के साथ पैसा इकट्ठा करता और हर सप्ताह उस बाबा के आश्रम में दान देकर आता।

बस खामख्वाह, ताकि आप मुझे भूले नहीं।
जय राम जी की.........

6 अप्रैल 2011

अंतहीन कहानी: ये तो न्यू ही चालेगी’

हर कहानी का कोई अंत हो ये जरूरी नहीं,
कहानियां अंतहीन भी तो हो सकती हैं,
रेल लाईन की पटरी की तरह,
जो एक छोर पर खत्म होने से पहले
दुसरी अनुगामी के साथ मिल जाती है,
और उस पटरी को अपनी अधुरी ख्वाहिशे देकर
खुद उसी जगह रूक जाती है।
हां रेल की पटरियां अंतहीन ही तो होती हैं

हर कहानी का कोई अंत हो ये जरुरी नहीं,

पर कहानी में अचानक बदलाव होते है...
जो नाटकीय  कहे जाते हैं.

ये ठीक उसी प्रकार है -
जैसे राजसत्ता की अंतहीन भ्रष्टाचार गाथाएं
ये आज शोर्य गाथाओं का स्थान ले चुकी है,
राजसत्ता में सामंतों के छिन्न भिन्न अंग,
उनके शौर्य की कथा उनके जख्म खुद कहते थे और
आज के सामंतों का छिन्न-भिन्न जमीर
किसी स्पॉ और पार्लर में रगड़े गये चेहरे.....
उनके भ्रष्टाचार की कहानी खुद ब्यान करती हैं
ये देश, काल  के हिसाब से बदलते है
जैसे  विधायकों की निष्ठाएं बदलती हैं...
और अचानक ही राजसत्ता बदलती है....

कहानी में सूत्रधार भी होता है, और
कभी बंद कमरे में रहने वाले भी तो
बाद में सत्ताधीश बनकर
सत्ता के सूत्र  अपने हाथों से नचाते है....
कहानी चलती रहती है....
मनो  कठपुतलियां नाचती हैं....
बच्चे ताली बाजाते हैं..... और
प्रबुद्ध शिक्षक कुर्सी पर विराजे .... पान मुंह में संमेटे
कठपुतलीचालक की निपुणता की बात करते हैं....
ऐसे ही ठीक न्यूजरूम में कैमरे के सामने.....
समीक्षाएं/विवेचनाएं खूब होती है....
पात्र बदल जाते है ... और पाठक भी... लेखक भी
खानदानों की तरह.....
पर खत्म नहीं होते...
कहानी सदा ही अंतहीन होती है....
खत्म होते होते एक नई कथा का बीज बो जाती है...

यूं ही घोटाले चलते रहते हैं....
अंतहीन..
एक छोटा-सा घोटाला ही...
इक महाघोटाले को जन्म देता है....
यही महाघोटाले जब टक्कर देने लगते हैं सत्ता को
और सत्ता डगमगाती है.... पनाह मांगती है..
घोटालों के बल.... भ्रष्टाचार सशक्त होता है
अट्टहास करता है...... सत्ता गिड़गिड़ाती है...
न्याय की वेदी पर...
जांच अधिकारी की पैनी कलम को
घोटाले के पैसे से वकील भौथरी करता है।
डेट बदलती रहती है..... राजकाज चलता रहता है
कहानी है....... चलती रहती है...

ब्लू लाईन के पीछे लिखा
‘ये तो न्यू ही चालेगी’
शाश्वत लगता है।

5 अप्रैल 2011

बहुत हो गया, किरकेट का स्यापा ....अब अन्ना को दिखाओ.....

बहुत हो गया, किरकेट का स्यापा ......

बहुत मिल गया पैसा..... शोहरत ..... और इतिहास में अमरता...... 
बस करो.


वो आज बैठ गए हैं - अन्नशन पर ....... न दही आलू खायेंगे.... या भीगे बादाम वाल दूध और न ही कुट्टू के आटे के पकोडे.....

अन्ना दुर्गा मैया की किरपा नहीं चाहते.... भारत माता के पुजारी हैं, उनके पुत्रों व आने वाली नस्लों के लिए भ्रष्टाचारमुक्त भारत चाहते हैं........ इसलिए पूर्ण भूखहड़ताल पर हैं....

  श्वर उनके इरादों को और बुलंद करे ...... और शक्ति दे......

मीडिया से जुड़े मित्रों, ....... बहुत हो गया भांड...... रात को रोड पर नाचती राजमाता का, नीली वर्दी वालों का, राडिया का, टाटा का और रीलाईन्स  का और राजा का...... 

आप भी चलो नयी दिल्ली...... 

अन्ना को दिखाओ.........
अन्ना को दिखाओ...... 

आज से अन्ना को दिखाओ..... अपने न्यूज़ चेनलों  बेशक उनकी बुराई करो....... पर उनको इग्नोर मत करना...... नहीं तो आने वाली नस्लें आपको कभी माफ नहीं करेंगी.......

जय राम जी की.

4 अप्रैल 2011

नव संवत २०६८ - शुभ, मंगल और शांतिदायक हो.


     नव वर्ष है..... हाँ, बस घर में रसोई से उठते कुछ पकवानों की महक... और माताजी की प्रात: जल्दी जागने की तक्सीद, या फिर बीते कल (पिछले संवत की आखिरी सुबह) कुछ लोग, (ह्रदय से नौजवान – और शरीर से अधेड), द्वारा एकत्रीकरण में देश समाज के बारे में सामूहीक विचार विमर्श, बस. ......
........... नव संवत है, बस यहीं से पता चलता है, न टीवी पर कोई झिक झिक, न मध्य रात्री में मोबाईल फोन पर सरकते मैसेज........ भारतीयता के सादे ढंग की तरह सादा हमारा नववर्ष – वर्ष प्रतिपदा .....
   क्या क्या सोचते है और कर्म की गति कहाँ ले जाकर पटकती है, कोई नहीं जानता.
मैं तो बनसा राम दा पुजारी ...
पर चा बैठा हाँ ऐ गठरी भारी..
    ये भारी गठरी खुद ही तो उठाई है, दीन-दुनिया की, माया की... सभी कुछ.  धीरे धीरे सामान इकठ्ठा किया, फिर जोड़ जोड़ कर गठरी में भरता गया..... कुछ और सामान.... और उसके बाद और, माया ..... और ... ताकि गठरी को आसानी से उठा लूं, भाड़े के बंदे बुला लूँगा ... स्वयं तो बस राम का पुजारी ही रहूँगा न.

और वो भाड़े के बंदे भी तो मेरी गठरी भारी करने पर लगे है....

अपनी ख्वाईशों को पूर्ण करने के लिए ... और सामान, अपने परिवार के लिए और सामान.... समाज में रुतबा बढ़ाने के लिए और, और सही में राम जी के लिए भी ....... पता नहीं क्या क्या..... घर मकान, फैक्टरी गोदाम, घोडा गाडी... बंगला जमीन....... कहीं भी अंत नहीं ..... गठरी तो वजनदार होगी ही न....

कैसे उठेगी, कैसे चलूँगा......... तपस्या बहुत है..... गृहस्थ का तप है ... किसी तपस्या से थोड़े कम है....  आदिवासी.... वनवासी सभी तो मिशिनरी या फिर नक्सली के रहमोकरम पर है..... बाकि तो सब ने अपनी गठरी उठा रखी है.

कहीं नीमघनी छाँव भी तो नहीं .......... कि गठरी नीचे रख ले और घडी-दो-घडी बैठ सुस्ता लें...

आज नव वर्ष पर बस यही सोच है...... भारी सामान है और दूर तक जाना है.....

नव संवत २०६८ आप और आपके परिवार के लिए शुभ, मंगल और शांतिदायक हो.

जय राम जी की.

2 अप्रैल 2011

पापा आउट ......क्रिकेट


पापा आउट ...........
बेटा मैं करेक्शन कर रहा हूँ...... मैं कैसे आउट हो सकता हूँ........
पापा सेहवाग आउट हो गया........
कोई बात नहीं बेटा... माना करेक्शन ज्यादा आ गयी.......... मुझे काम करने दे......
अरे पापा ....... आप जानते नहीं हों, करेक्शन तो फिर भी ठीक हो सकती है, पर सहवाग दुबारा थोड़े ही आ सकता है........
आ जाएगा बेटा, उसने अन्सुरेंस की कम्पनी से विज्ञापन बुक करवा रखा है...... उसीमें फिर से आ जाएगा.......... पर अगर करेक्शन रह गयी तो ... तो...... पब्लिशर (सेठ) पैसा काट लेगा....... मुझे करेक्शन लगाने दे....
पर वो तो विज्ञापन में आएगा न...... बेटा वो खेले या नहीं, उनको तो पैसा मिलेगा ही न...... चाहे बेटिंग से मिले या फिर विज्ञापन से..... बेटा उनको चूल्हे ही चिंता थोड़े ही है...
पापा, क्या बात कर दी, आपने, क्या इतना बड़ा खिलाडी चूल्हे की चिंता करेगा...... चूले ही चिंता तो आप जैसे कम्पोसिंग वाले करते हैं, जो बड़े बड़े तथाकथित विद्वानों के लेक्चर कम्पोसिंग कर के दिल जलाते हैं....
तो
पापा वो तो देश की चिंता करेगा न....
बेटा, देश की चिंता करते तो १ रन बना कर आउट थोड़े ही होते.....
लो, आप के बोलते बोलते सचिन भी आउट हो गए.......
बेटा, जो खेलने आता है, वो आउट होने के लिए ही आता है, ये बात अलग है कोई १ रन बना कर आउट हो जाता है और कोई १०० से ऊपर......... पर आउट होना ही है........... 


यही शाश्वत सत्य है.....
जिंदगी हो या खेल का मैदान.