30 नव॰ 2010

एक बोध कथा....

     एक मजदूर को लत लग गयी..... लत (नशा) हर चीज़ की बुरी होती है. सुबह-सवेरे मजदूरी का नागा कर के पार्क में बुद्धिजीवी लोगों के बीच बैठ जाता... जहाँ देश समाज पर चर्चा होती रहती थी... कुछ जवलंत मुद्दे उठाये जाते ........ कुछ राय जाहिर की जाती ... प्रधान मंत्री को ऐसा करना चाहिए...... नेता विपक्ष यहाँ गलत था......  आदि इत्यादि.... पतनशील समाज और गर्त में जा रहा है. सिनेमा का यह रूप हमारी युवा पीडी और हमारे मूल्यों को समाप्त करने पर तुला है..
      वो मजदूर सुबह से लेकर देर दोपहर उन लोगों की बीच बैठा रहता.... खैनी खाता और उनकी न समझ आने वाली बातें सुनता रहता...
    दोपहर बाद उसे दायें–बाएं घूमना पड़ता.... तब उसे कोई भी मजदूरी पर न रखता.... और रात ढ़ले घर आता.... घर वाले थका मांदा समझ कर समय से खाना वगैरह दे कर कुछ न कहते..
    सुबह फिर से वही दिनचर्या....... पर शांत माता सब देख रही थी और समझ भी रही थी...... एक रात कहीं बुद्धिजीवी बैठक में जाने के लिए उसने माँ से कुछ पैसे मांगे तो.... माता फट पड़ी..... ये मजदूरी छोड़ कर बतोले करता रहता है... कब तक मेरे से पैसे मांग कर गुजारा करेगा ?

सही तो कहा है अमरकवि दुष्यंत ने
हर उभरी नस मलने का अभ्यास
रुक रुककर चलने का अभ्यास
छाया में थमने की आदत
यह क्यों?

जब देखो दिल में एक जलन
उल्टे उल्टे से चाल-चलन
सिर से पाँवों तक क्षत-विक्षत
यह क्यों?

जीवन के दर्शन पर दिन-रात
पण्डित विद्वानों जैसी बात
लेकिन मूर्खों जैसी हरकत
यह क्यों?

जय राम जी की

27 नव॰ 2010

ये दिल्ली है साहेब.......

    ये दिल्ली है साहेब........... यहाँ चकाचौंध है.... बड़े बड़े खेलों की, मीडिया के कैमरों की, आसमान छूती बिल्डिंग में बड़ी कंपनियों के साइन बोर्ड की....... एकदम चमाचम....
    कहा जाता होगा किसी जमाने में, दिल्ली है दिलवालों की... पर आज नहीं .. आज दिल्ली है संगदिल लोगों की....... संगदिल ...... चाहे पैसे और रुतबे से कित्ते भी बड़े क्यों न हो.... चाहे उन्होंने अदब और साहितियक  दुनिया में कित्ते ही बड़े झंडे बुलंद न कर रखे हों......... चाहे कित्ते ही बड़े समाजसेवी और मानवाधिकार और पर्यावरण, जाने क्या-क्या, के कार्यकर्ता और अधिकारी हों...... पर सब संगदिल......... बाहर का दिखावा एक दम मस्त.... पोलिश .... पर एक छोटा-सा दायरा ... उसके अंदर किसी को भी आने की आज़ादी नहीं.... और न ही साहेब लोग उस दायरे से बाहर जाते है ... एक बनावटी मुस्कान ... कागज के फूलों-सी हरएक सूटेड-बूटेड टाई पहने इंसान के मुंह पर है..........

       महंगे ब्रांडेड महकते कपडे में लोगों के काले-काले दुर्गन्ध मारते दिल ... चमचमाते चेहरे..... लंगर.... दान........ गुरुपुरव, साईं संध्या, विशाल भगवती जागरण है यहाँ. ......... हरेक की प्रधानी चमक रही है..... कालकाजी मंदिर, बंगला साहिब, शीश गंज साहिब, हनुमान मंदिर, शनिमंदिर में लगती लंबी कतारें...... सूटेड-बूटेड प्राणाम - ये नतमस्तक हैं. .... पापों से छुटकारा चाहने के बाद........ दारू और मुर्गे के साथ आबाद होती किसी भी फार्म-हाउस और बियर-बार में रंगीन शामे........ रात १२ बजे तक दिन है साहिब.. अब कौन क्या कर रहा है किसी को क्या मतलब? अपना सौदा देख.
     सुबह की टेंशन ......... ऑफिस, उधारी कारों (इंस्टालमेंट) की लंबी कतारें, ट्रेफिक जाम – एवेरज १० कि.म. प्रति घंटा.... एम्बुलेंस और फायर ब्रिगेड का शोर - कोई मरे तो मरे ......... लबालब मेट्रो........ भागते इंसान... दम तोडती सिटी बस. परेशान करते ऑटो रिक्शा वाले.. दिल्ली है साहेब.......... गुजारा करोगे - तो खरीदो कार और लगो क्यु में .... १५ किलोमीटर के ऑफिस में पहुँचो शान से १ घंटे में.... टाई पहन कर – सूटेड बूटेड.... आप अपनी सहुलि़त के लिए नहीं जी रहे ......... आप सहुलि़त पाने के लिए जीते हो यहाँ पर........ साध्य ही रास्ता है साधन तक पहुँचने का..... उलटी गंगा है - ये दिखावटी अमीरी है साहिब...
  यहाँ पर बहिन-बेटी, बुडे माँ-बाप – सब बराबर ... धक्का मुक्की........ चैन स्नेचिंग, बैंक-रोबरी , लूटमार, बलात्कार.......... जो हो जाए वो कम है. अब बारी है दुसरे तबके की ....... उनके पास अगर किस्तों पर कार है तो हमारे पास चोरी की............ वो फार्म-हाउस में रंगीन शामे गुज़ार रहे हैं तो अपन भी दारू पी कर बलात्कार से ही गुज़ारा कर रहे है..... आदमी पिस रहा है अपने सपनो में ... अपनी आकांक्षाओं में...... जो कि गाँव में उधार लिए थे....... और दिल्ली में लुटा रहे है........
नेता मस्त है - पुलिस पस्त है ... दबंग जी रहा है...... कर्मो से पूज रहा है.

आओगे साहेब...... मेरी दिल्ली में .......

अपने सपने गाँव में पूरे करना जी.... मत आना इन सपनो के शहर .. यहाँ तो सुना है श्रवण कुमार ने भी माता पिता से किराया मांग लिया था..... यमुना भी यहाँ आकर थक जाती है....... 

ये दिल्ली है 
शान है
सत्ताधीशों की.......
दलालो की...... 
घोटालेबाजों की....
और दूषित मानसिकता लिए जाबाजों की......


आओगे यहाँ .... स्वागत है.....  


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25 नव॰ 2010

मेरे हमराह .. मेरा साथ दोगे

मित्रों जरूरी नहीं कि आपका हमराह सदा आपके साथ ही चले, कुछ शिकवे हो सकते हैं, कुछ शिकायते भी.. और बीच मजधार में जब यही शिकवे और शिकायते .... कसमे वायदों पर भारी पड़ती हैं तो मुहं से आह निकलती हैं :
प्रस्तुत हैं कुछ पंक्तियाँ, अगर आप कविता का नाम दे दो तो अपने को धन्य मानूंगा.

मेरे हमराह .. मेरा साथ दोगे.
राह में मेरे साथ चलोगे..
वायदा निभाओगे...
इस कंटक पथ में
विचलित तो नहीं होवोगे..
मेरे हमराह .. मेरा साथ दोगे.

मैं नहीं जानता रस्मे-ऐ-जमाना...
मैं नहीं जानता दस्तूर-ऐ-मोहब्बत
मुझे नहीं मालूम मंजिल अपनी
मैं एक आवारा बादल सा,
क्या मेरा साथ निभावोगे..
मेरे हमराह .. मेरा साथ दोगे.

इन बारिशों में पानी बहुत है
इन नदियों में न-उम्मीदी का आलम
मेरी पतवार भी टूटी और
मेरी कश्ती भी बीच भंवर में...
मेरे हमराह ..  क्या फिर भी तुम
मेरा साथ दोगे?

तुफानो के काले साये यूं..
रोशन नहीं होने देते राह को
ये कडकती बिजलियाँ भी..
काली अमावस की रात में
नहीं दिखाती राह भी...
तो क्या, मेरे साथ चलोगे..
ऐ मेरे हमराह .. मेरा साथ दोगे ?

लिख तो दिया, पर मैं अभी भी यही मानता हूँ कि अगर हम सफर या फिर हम राह ठान ले  कि वो आपके 'हम कदम' रहेंगे, तो कोई भी मुश्किल डिगा नहीं सकती.

जय राम जी की.


24 नव॰ 2010

ये नए लोकतंत्र की बयार है

    की-बोर्ड नज़र आ रहा है – मोनिटर नहीं, हाथ मोनिटर को सूझ रहे हैं...... जूझ रहे हैं.... खोज रहे हैं.....  उस धडधड़ाती न्यूज़ के लिए.... जो पेज १ पर कम्पोज हो रही है....  रात्रि के अंतिम पहर में यह पहला पन्ना......... बहुत कुछ खाली है ... इन ख़बरों की तरह ..
कई खबरें गोल है उपरी माले में दिमाग की तरह.....
    कई खबरे बे-पैंदे लोटे की तरह लपक रहीं है... अखबार के फ्रंट पेज पर ...... खाम्खाहं ... बेमतलब.. भ्रष्टाचार ....... घोटाला ....... गडबडझाला ....... मग्गा ला ....... बेकार की जिद छोड़....
     जब  बत्ती बना कर ये ‘नाईट की मेहनत’ पड़ा होगा सुबह बरामदे में....  लोग, इस अंतिम पहर के पहले पन्ने को छोड़ कर पलटेंगे तीसरा पन्ना....... उसके बाद .. देहली एन सी आर, व्यापार, तेरा मेरा कोना .....  ज्योतिष और सेल ..... सभी कुछ तो देखेंगे..... पर नहीं देखते ये सब पहले पन्ने को.....
    इक आदत सी हो गयी है अब .. इन बाबुओं को ....... इन सब कीटाणुओं के साथ जीते हुवे ....... इन विषाणुओं को पीते हुवे..... स्टेंडर्ड अपना-अपना है..... रकम उनकी लाख-करोड़ों में हुई तो क्या हुवा....... अब ‘अपुन’ भी तो हरे गांधी के नीचे नहीं मानता....
     चाय की चुस्की के साथ मैडम भी पूछती है....... सन्डे इव मॉल रोड चलेंगे........ डिकोस्टा क्रिअशन में इटालियन स्टेंडर्ड का माल आया है .... भारी सेल पर .....
     और पहला पन्ना ...... वहीँ कहीं क्रिकेट (खेल) के पन्ने के नीचे छुप सा जाता है ...... ८० पॉइंट बोल्ड की हेडलाईन गौण हो जाती है, बाकि सब हाई लाईट है....... बिना किसी टाईपोग्राफी के .....
     ये नये जमाने की नयी सुबह है.... थोड़ी बहुत कालिमा लिए हुए .... पर सब चलता है, क्या है कि ये नए लोकतंत्र की बयार है - कौन पूछता है सरदार की सरदारी को....... 'कंट्रोल एस' की तरह सब कुछ पुख्ता है राजमाता के ब्रह्मवाक्य की तरह.... 




जाते जाते दुष्यंत जी के शब्द हैं 

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

जय राम जी की 

19 नव॰ 2010

असली जूता, ..... इव्नेबतुता – बगल में जूता...... वाला नहीं

‘जूता’
इव्नेबतुता – बगल में जूता ....... वाला नहीं
     जो रिंग रोड मायापुरी फ्लाई ओवर से उतरते वक्त बेदर्द वाहन चालकों से सताया हुआ .. कुचला हुआ ... सड़क के बीचो-बीच पड़ा मिला था ....... वही वाला.
     सड़क पर पड़े एक बेकार से जूते को देखकर पता नहीं क्यों मेरे दिमाग में हलचल सी मच गई..... ये जूता अपनी बुरी से बुरी दशा में था.. काले रंग रहा होगा कभी ... फिलहाल मिटटी में लथपथ सा था..– फीता भी था ... जूते के उपर फीते के लिए कुल छ: छेद थे– और फीता मात्र ३ छेदों में ही था....
       रिंग रोड पर ट्रेफिक ज्यादा था उसी जगह स्कूटर रोकना मुनासिब नहीं था... अत: थोडा आगे जाकर स्कूटर एक किनारे रोका और वापिस आकर वह जूता उठा कर पटरी पर रख दिया... जूते में सोल भी लगा था – कुछ अटपटा सा लगा.. ‘सोल’....... बचपन में १ साल जूता पहनने के बाद जब घिस जाता था तो मोची से जूते में सोल लगवाया जाता था.. जिससे से उसे अगले १ साले के लिए कुछ जीवन मिल जाता था.
      जूता कोई १५०-२०० रुपये की कीमत वाला लग रहा था... जूता उद्योग में आई क्रांति कि वजह से आजकल कोई भी जूते में सोल नहीं लगवाता. क्योंकि जूते सस्ते पड़ते हैं. (ब्रांडेड को छोड़ दें तो). ... पता किस शख्स का जूता होगा? जिस दिन नया खरीद कर लाया होगा – उस दिन शायद नए कपडे भी खरीदें हो... और हो सकता किसी शादी–वादी में जाना हुआ हो.... दो चार लोगों ने पूछा भी होगा.. क्यों भाई, नया जूता लाये हो  
कहाँ से लाये
कित्ते का लाये आदि आदि...
       यानी इस जूते ने अच्छे दिन भी देखे होंगे... हो सकता उस शख्स ने किसी के पुराने जूतों को हिराकत की नज़र से भी देखा होगा ... तो उस समय यही जूता अपनी पोजीशन पर कितना इतराया होगा... धीरे धीरे ही ये घीसा होगा.... फैक्टरी (या कार्यस्थल) में आने जाने में.... इतवार को कुछ सोद्दा-सट्टा लाने में .... कहीं दस दिन के बकाया वेतन के लिए चक्कर लगाए होंगे. छोटे को जब बुखार हुआ था तो सरकारी डिस्पेंसरी पर चक्कर लगे होंगे. हो सकता है .. कहीं लाल झंडे वाले कम्युनिस्ट यूनियन के चक्कर में पड़ गया हो...... तो पता नहीं लेबर कोर्ट में कित्ते चक्कर लगाए होंगे.
       हो सकता है वो शख्स किसी की मय्यत में भी शामिल हुआ हो और ये जूता शमशान या फिर कब्रिस्तान की सैर का आये हों..... खुदा न करे ... वो शख्स कहीं जेबकतरे या चोरी-चाकरी में नप गया हो तो हो सकता है – बड़ी ‘हवेली’ के दर्श भी कर आया हो ... पर ये उम्मीद कम ही दिखती है ... क्योंकि अगर इस जूते का भूतपूर्व मालिक इतना ‘शातिर’ होता तो जूते पर सोल न लगवाता... स्स्सला नया खरीदता. 
      कुछ समझ नहीं आ रहा...... अत: में जूते को इज्ज़त से पटरी पर रख कर स्कूटर स्टार्ट कर के चल देता हूँ. .. पर मन ही मन उस जूते को याद करता हूँ.... जो इतिहास बने... जिन पर कैमरे क्लिक हुए... जो अगले दिन की अखबारों में सुर्खियाँ बने....... जैसेकि : 

अमेरिका प्रधानमंत्री  जॉर्ज डब्लू बुश पर....   पत्रकार मुंतजर अल जैदी का जूता......
पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी पर.... ब्रिटेन में – अनाम शख्स का जूता...
जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पर...  अब्दुल अहद जन, निलंबित हेड कांस्टेबल का जूता....
भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम पर....  पत्रकार जनरैलसिंह का जूता......

       ये सभी जूते पूजनीय हैं..... वंदनीय है....... हो सकता है अभी कहीं सरकारी 'मालखाने' की इज्ज़त बड़ा रहे हो.
      जब मैंने वह जूता इज्ज़त से पटरी पर रखा तो बस एक ही बात मन में आई........ काश उपर उल्लेखित चार जोड़ी जूतों में कोई एक जूता मुझे मिल जाता तो .... संभालकर रख लेता.....सुबह साइकिल ब्रांड २ अगरबत्ती रोज जलाता.... 
      आप सब पत्रकार लोगों से गुजारिश है...... जब भी आप प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, वित्तमंत्री, खाद्यमंत्री, इस सरकार की सर्वेसर्वा कठपुतलीचालक 'राजमाता' या फिर कोई भी मंत्री पद से सुसज्जित व्यक्ति, अगर उनकी प्रेस कांफ्रेंस में जाओ तो कृपा अपने जूते को मौका दो... और जूता मुझे दो........ पूजा के लिए.......
      जाते जाते एक बात और याद आ गयी ...... "सत्ता के दलालों को ... जूता मारो सालों को"

जय राम जी की.
Photocourtsey: www.bbc.co.uk/hindi/india/2010/08/100815_omer_shoe_ac.shtml

17 नव॰ 2010

कित्ता ही आसान ..... और कितना मुश्किल.

मित्रों, कई बार कहीं ऐसी कविता या कुछ पंक्तियाँ मिल जाती है कि आपके दिल को छू जाती है. आप उसको इग्नोर नहीं कर सकते..... कुछ सोचने पर मजबूर करती है : 
कित्ता आसान है – किसी के एड्रेस बुक में स्थान पाना, पर
कितनी मुश्किल आती है दिल में जगह बनाने के लिए

कित्ता आसान है – किसी की गलती गिनना, पर
कितनी मुश्किल आती है अपनी गलती ध्यान आने में
कित्ता आसान है – बिना सोचे समझे बोलना, पर
कितनी मुश्किल आती है अपनी जबा को संभालने में.
कित्ता आसान है अपने किसी प्रिय को दुखी करना, पर
कितना मुश्किल है किसी जख्मी दिल को मोह्हबत से भरना
कित्ता आसान है – किसी को भी क्षमा कर देना, पर
कितना मुश्किल होता है किसी से क्षमा माँगना...
कित्ता आसान है – कोई नियम बनाना, पर
कितना मुश्किल होता है – इसे स्वयं पर लागू करना..
कित्ता आसान है – सपने देखना, पर
कितना मुश्किल है  उनको पूरा करना ...
कितना आसान है विजयोत्सव मनाना , पर
कितना मुश्किल है उसी गरिमा से हार स्वीकार करना...
कित्ता आसान है – किसी से वायदा करना, पर
कितना मुश्किल हो जाता है – उसे पूरा करना..
कितनी आसानी से हम गलती करते हैं, पर
कितना मुश्किल है – उन गलतियों से सीखना..
कित्ता आसान है – बिछुड़ों के लिए रोना, पर
कितना मुश्किल है – उनको संभालना जो नहीं बिछुडे....
दिन में कितनी बार हम कुछ इमप्रोवमेंट के लिए सोचते हैं
पर लागू करना कित्ता मुश्किल है..
कितना आसान है शब्दों की दोस्ती करना , पर
कितना मुश्किल होता है इन्ही शब्दों के अर्थ के साथ निभाना....

कितना आसान .... कितना मुश्किल ...... वाकई आसान - बहुत ही आसान और मुश्किल - बहुत ही मुश्किल....... ये पंक्तियाँ कह लो या फिर कविता.... इ-मेल से प्राप्त हुई थी.. उसे अनुवाद कर के  आपसे बाँट कर कुछ प्रसन्नता अनुभव कर रहा हूँ....... 

सही में, कित्ता आसान है किसी के मज्मूम को छापना, पर कित्ता मुश्किल हो जाता है खुद दो-शब्द लिखना.....

जय राम जी की..... 

16 नव॰ 2010

लक्ष्मी नगर हादसा - क्या सबक सीखेगी सरकार ...... या २ लाख हर दिल्ली वाले की जान की कीमत है.

इसको आप कविता नहीं समझे ये जज्बात है उन परिवारों के लिए जो लक्ष्मी नगर की उस बिल्डिंग में रहते थे.... कल रात काल का ग्रास बन गए.... हुतात्माओ को प्रणाम – इश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे ... यहाँ तो शांति नहीं पा सके..... एक अच्छे भविष्य के लिए लड़ते रहे.... सूरज के ढलने के देर बाद तक काम किया.... की आने वाली नस्ल कुछ अच्छा पा सके ... कुछ अच्छा जी सके.... आज सरकार इन परिवार को २ २ लाख दे रही है..... पता नहीं कब तक ये पैसे उन तक पहुंचेगे और कितने पहुंचेगे... आंसू बहाने सभी आये.... पर ऐसे दुबारा न हो – ये कोई नहीं कह सकता.

जीवन में
जीने के लिए
बहुत मेहनत की उन्होंने
और पिछली रात जमींदोज हो गए......
ईंट दर ईंट लगा कर
कई ऊँची इमारतों को आकार दिया था ...
सीमेंट में पसीना मिला
उन दीवारों पर लेप किया था....
उनके हाथ में गैती और फावड़ा...
चलता था धरती की छाती पर
और कल धरती ही निष्ठुर हो गयी..
उन थकान भरी शामों की कसम
वो देसी ठरों की खाली बोतलें
आज उदास हैं.......
जिन्हें पी कर घर पहुँचते थे 
हँसते गाते...
वह आशियाना जब
कल दफ़न हो गया ...

क्या कोई बता सकता है की दिल्ली में जो फ्लैट बन रहे हैं – उनकी निति क्या है... आज कोई भी बिल्डर बन जाता है... कोई भी .. योग्यता ये है ...
झूठ बोलना जनता हो, धूर्त हो,
छोटे-मोटे नेता से सम्बन्ध हो.....
पैसा किसी से भी उधार ले सकता हो...
आपके पास ५० गज का मकान है दिल्ली में – तो वो आपके पास आएगा और आफर करेगा... एक फ्लोर मैं लूँगा. २ आपको बना कर दूँगा.....
ऐसी बिल्डिंग का क्या भविष्य होगा – ये आपने देख लिया.....
क्या हम विकसित देश के नागरिक हैं...... जब कोई हादसा होता है तो मदद पहुँचने के लिए ८-१० घंटे लगते हैं - वो भी विकसित देश की राजधानी में..... पता नहीं डिस्कवरी चेनल वाले कौन सी दुनिया की तस्वीरें दिखाते है.... जहाँ हादसे में १ १ आदमी की जान की कीमत होती है .... क्या वो विकसित देश होते है.... या हमारे देश जैसे. यहाँ तो बस राम जी की महिमा है.... इंसानियत जिन्दा है.. लोग भाग पड़ते हैं..... जितनी बनती है उतनी मेहनत करते हैं. 
अब समय है - दिल्ली सरकार को चेतना चाहिए...... संकरी गलियों में ऊँची ऊँची बिल्डिंग बन गयी है..... किसी भी समय किसी खौंफनाक हादसे के इन्तेज़ार में.... 


foto courtsey: google.co.in

13 नव॰ 2010

श्री श्री १००८ श्री समीरानंद जी महाराज - दिल्ली में ब्लॉग पूजा

लिखो भाई, कुछ तो लिखो........
इत्ती भी का जल्दी है..... काहे लिखो लिखो लगा रखी है....
अरे बड़े बाबा आये थे ... बिदेश से.... कह रहे थे कुछ न कुछ जरूर लिखो और का कहते है सकारात्मक, स्रुजान्तामक और भी पता नहीं कैसे कैसे शब्द बोल रहे थे ...... उ वाला लिखो......
बड़े बाबा कौन भाई.......
अरे ‘उड़नतस्तरी’ में विदेश से चल कर अपने देश पहुंचे श्री श्री १००८ श्री समीरानंद जी महाराज के प्रवचन थे........
अच्छा, लगता है ....... तुमहो भी आज दिल्ली दीवान गए थे........
हाँ बाबा...
अरे अस्त्र सशत्र भी ले गए थे का....... बोला गया था...
अरे बाबा..... उधारे कैमरा मांगे थे ‘पूर्विया’ से, फोटो तो खींची ...... पर उ कैमरा तो पूर्विया जी ले गए.......
और कोनों भाषण – वाषण भी टेप किये हो..... मोबाइल में
अरे बाबा, आप भी छट पूजा की तरह आधे घुटने पानी में खड़े होकर हमका ज़लील कर रहे हो....... अगर इत्ते पैसे होते की सभी अस्त्र शास्त्र अपने पास रखते तो फिर कोनों बड़ी पत्रिका में संपादक होते ........ इहाँ निठ्ठले बैठ कर ब्लॉग पूजा जरूरी करनी थी......
चलो छोडो, हमका धृष्टराष्ट माना और संजय की तरह कमेंट्री करा .....
हाँ बाबा... इ बात .... बस इ हमरे बस की है......
हम लेट पहुंचे प्रोग्राम में ... प्रोग्राम चालू अहे .... सबु ब्लोगर भाई ... अपना अपना नाम और ब्लॉग नाम वगैरा बताए रहे........
कोनों ‘अविनाश’ जी बताए रही .... जो उ प्रोग्राम को सेट किये ..
और ब्लोगर लोग भी तो आये होंगे......
अरे बाबा.... आप तो सर्वग्यानी है... समझ ही रहे होंगे.... हम ठहरे मूढ़ मति ... कुछ समझ नहीं आया ... क्वोनो आये और क्वोनो नहीं ...
यानी ....... नाम भी नहीं मालूम..
हाँ, बाबा उ घुम्मकड छोरा रहा न........ का नाम है ‘नीरज जाट’ उ आया था परमानेंट बैग लटकाकर, उ क्वोनो नारीवादी ब्लोगर थी रचना दीदी  आई थी .......... उ बहुते पचड पचड बोले रही........ बोले की सभी ब्लोगर अपने अपने घर में एको ब्लॉग और चलो करवाइए ... हमहू बोले........ हमरी सरिमती जी अगर ब्लॉग लिखेंगी तो चूल्हा चोव्का कोण करेगा..... पता चले की जो कमा रहे उका खाना बाहर होटल से आ रहा.........
 चुटकले वाले राजिव तनेजा आये रहे....... उ अपनी तनेजी के साथे थे......  और हाँ एको बात बताना भूल गए...
का भाई
बाबा, उ सतीश सक्सेना भी आये थे..... इन्हा जवानी में नज़र आते हैं... उन्हा हम नहीं पहचाने.... बाद में पता चला इ हरे शर्ट वाले सक्सेना जी है...... अब लगता है बुडिया गए है..... पर फोटू में जवानी वाले लगाए रखे है.....
नहीं बाबा, पर इ बोल दिया की भाई फोटू तो कम से कम अभी का लगाओ....... कहीं मिल जाए तो रामा-शामा तो हो जाए..
ठीक भाई. सही कहा.....
और क्वोनो अच्छी बाते बोले......
बाबा उ प्रभा साक्षी के संपादक थे ............ उ का नाम भी ध्याने नहीं आ रहा ..... बहुते प्यार से समझाया ...  और कविता भी पढ़ कर सुनाई ..... और हाँ रतन सिंह शेखावत जी आये थे..... बिना पगड़ी के .... उ भी पहचान में नहीं आये....
और
और वर्मा जी थे, पुरविया से लगे रहे बतियाने....... एको एरिया से थे ना......
और बताओ
और हाँ, अजय झा आये थे........ तुरंत फुरंत फोटू खीचे रहेई ... और पोस्ट भी कर दिया...
पर तुमहो बुरबक फोटू काहे नहीं लगाया.....
अरे बाबा, उ पुरविया जी तुम जानत रहे.... बोले सरकारी दफ्तर बंद हो गया छो: बज़ गए...... अब सोमवार को बात करना......
और कोई नाश्ता वगैरा था.........
हाँ बाबा, चाय और समोसा के साथ मिठाई रही, हमहू जल्दी में रहे ....... प्रेस में काम था........ चाय पि कर निकल पड़े..... पर एक बात..... उ रजिस्टर भेजा गया था....... इंट्री के लिए...... उ में सुझाव का कालूम भी था...... हमने लिखा था ... सुझाव : चाय गर्म होनी चाहिए...... पर ठंढा था......
अरे बुरबक ..... एक तो मुफ्त की चाय पीवो और गर्म की बात भी करा......


3 नव॰ 2010

एक ठो लघु कुत्ता कथा......

फोटो साभार : www.wheelchairsfordogs.com


जंगल में एक हरे भरे जगह पर कुकर सभी इक्कट्ठा हैं........ मौका है - नया सरदार चुनने  की रस्म पूर्ति करने का .......
वैसे तो कुक्कर स्वाभाव से ही स्वामिभक्त होते है और ये चुनाव वगैरा में मन नहीं लगाते  - पर क्या है कि इस जंगल में लोकतंत्र की रावायत चली हुई है....... इसलिय दिखाने को ही सही... सभी कुक्कर चुनाव में भाग लेते हैं व् अगले तील साल के लिए सरदारी तय करते हैं.... वैसे ये सरदारी भी एक ही वंश के अधीन है........ शुरू से ही इस वंश को सरदारी करने का शौंक रहा था..... इसके लिए जंगल भी बाँट डाला गया...... ताकि अपनी सरदारी कायम रहे...... उसके बाद जो पुश्ते हुई .... उन्होंने और इस सरदारी को पुख्ता किया.....

वैसे इस जंगल का इतिहास बहुत ही पुराना है. कई सैकड़ों साल पहले दुसरे जंगल के जानवरों ने यहाँ के सिंहों पर शासन किया..... इतनी गुलामी के बाद सिंह दहाड़ना तो दूर, गुराना ही भूल गए.. कोई २०० साल पहले कुछ गोरे रंग के अलग तरह से जानवर इस जंगल में आये और ....... उन्होंने सिंहो को बिलकुल ही बदल डाला...... और उन्हें नख दांत शक्ति वहीन कर दिया ..... हालाँकि समय समय पर कुछ सिंह सरदार भी आये पर और उन्होंने अपनी कौम को जाग्रत करने का प्रयास किया पर - गौरे जानवरों की शिक्षा का इत्ता प्रभाव था कि उनका कोई प्रयास कामयाब नहीं हुवा.

आइये फिर उसी हरे-भरे  स्थल पर चलते हैं - इस समय 50  से भी ज्यादा कुक्करों ने खड़े होकर पुराने सरदार के पक्ष में अपनी निष्ठा  दर्शाई ..... और देखते ही देखते ... कई कुक्करों  ने इक्कठे एक सुर में भौंकने लगे....

निवर्तमान सरदार ..... संतुष्ट हुवा..... और एक ऊँचे टीले पर चढ़कर ... जोर की गुर्हात भर का सब को शांत रहने का इशारा किया...... कुक्कर समुदाय बहुत ही प्रस्सन था ...... जज्बातों को काबू में रख कर चुप तो हुवा..... पर उमंगें इत्ती ज्यादा थी अत:  उन्होंने सरदार के वर्णसकर्ण युवा पुत्र को घेर लिया ........ और उसकी भी स्तुति गान करने लगे.. निष्ठा और चम्मागिरी का ये अनुपम उद्धरण कहीं और देखने को नहीं मिला.

हालांकि मुद्दे तो बहुत थे...... कई कुक्कर भष्टाचार की सभी हदें पार कर चुके थे..... कुछ तो रक्षकों के मकान को अपने नाम किये बैठे थे, कुछ जंगल के जानवरों का राशन गोदाम में रख कर भूल गए थे - जो बाद में पड़ा-पड़ा सड़ गया . कुछ ने जंगल गौरव के नाम  हजारों करोड़ डकार चुके लिए ...... पर सरदार ने इन सब को भुला कर सिंहो के उस गिरोह पर ही निशाना साधा. उन्हें आंतकवादी करार दे दिया गया ........ कुक्कर समुदाय और प्रस्सन हुवा......... मीडिया भी थी..... चकाचक फोटू, अखबार में पहले पेज पर ८० पॉइंट बोल्ड हेडिंग लगी " आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्तता" को बक्शा नहीं जाएगा........

जिन कुकरों ने दुनिया भर के घोटाले कर रखे थे.....  बहुत खुश हुए और सरदार का इशारा पार का भौंकते हुए हमला करने भाग पड़े 

2 नव॰ 2010

एक पोस्ट गंगा राम की तरफ से.......

बाबा मेरी बात सुनो......, गधा बनना मंज़ूर है ........ पर खुदा किसी को छोटा भाई न बनाये.......
रे गंगा राम के बात हो गयी.

कुछ नहीं बाबा, बस एक बात गधा बनना मंज़ूर है ........ पर खुदा किसी को छोटा भाई न बनाये.......
अरे फिर भी कुछ तो बोलेगा...

अब क्या बोलूं बाबा, घर में हम पांच भाई, मैं सबसे छोटा - गंगा राम..
ठीक है, इसमें के... एक न एक ने तो छोटा होना ही था....... तू हो गया.

नहीं बाबा, तेरा कोई बड़ा भाई है...
नहीं - गंगा राम..... न तो मेरा कोई बड़ा भाई है न ही कोई छोटा...पण तेरे जीसे छोटे-बड़े घने भाई से.....

बाबा, मैं असल की बात करूँ और तू बातां की खान लग रहा....
नहीं गंगा राम, मेरो कोई बड़ो भाई कोणी......
जी बात....

बाबा.... इब मैं अपना दर्द सुनाऊं .......
सुना भाई छोरे....

    पहला बोला, रे गंगाराम, भैंसों ने सानी कर दे हमने सूट और बूट पहन रखे हैं....
ठीक है भैया.....
     दूसरा बोला, रे गंगाराम, जा जीजी ने घर छोड़ आ, और हाँ जे सूट और बूट पहर जईओ - इज्जत का सवाल है .... हमने काम ज्यादा है....
ठीक है भैया.....
    तीसरा बोला, रे गंगाराम, जा खेता में चला जा, पानी लगा दिए.... आज बिजली रात की है.
ठीक है भैया.....
    चोथा बोला, रे गंगा राम, अब ये सूट और बूट तू पहन ले, मेरे पे छोटे हो गए. 
ठीक hai
     और हाँ, रात चला जाईये, प्रधान जी ने दारू पी राखी होगी....  उने राम राम कर दिए - जरूर,  बापू ने मने कही थे.... पर मेरे कपडे ठीक कोणी - तने सूट और बूट पहर  रखे हैं

भाई जे है छोटे भाई की दास्ताँ, अगर खुद सूट और बूट पहने तो कोई काम न करे ..... और हमने पहर लिए तो प्रधान जी तैयार........