18 सित॰ 2010

लिवनी आंटी................

परिंदे तय कर लेंगे अपना सफ़र.
मौसम की दीवानगी से वाकिफ़ है.

सही तो है. पर एक बात जो अपन को कचोटी है – मेरे जैसे परिंदे को तो ये मालूम नहीं कि मंजिल कहाँ है – फासला कितना है – कैसे तय कर पायेंगे अपना सफर.

बस आवारागर्दी ही तो होगी.

ये आवारागर्दी कहाँ पहुंचायेगी........... ये न मैं जानता हूँ न आप.

बिना मंजिल – बिना किसी लक्ष्य के जीवन जीना......... कितना ही मुश्किल है – ये बात पड़ोस में रहने वाली उस लिवनी आंटी कि जीवनचर्या से मैंने सीखी थी.

लिवनी का मतलब – पागल होता है – वो ओरत थोड़ी सीधी थी – अत: बालपन में हम भाई बहनों ने उसका नाम लिवनी रख दिया था. उसका पति MCD में मुलाजिम था. घर में मात्र दो प्राणी थे – पति-पत्नी. मनो दो हँसो का जोड़ा.

याद आती है – गर्मियों कि वो दोपहर - एक दिन वो आंटी अकेले घर में रो रही थी. बाल-मण्डली को मालूम हुवा – बात घरों तक पहुंची – आस-पड़ोस कि कई औरतें इकट्ठा हो गई – पूछा गया .. ......... तू क्यों रो रही है – जवाब सुन कर हंसी आ गई – वो बोली आज वो दोपहर को खाने पर नहीं आये ..... काफी देर हो गई. एक बंद भेजा गया - आध-पोन्न किलोमीटर दूर ............ तब वो श्रीमान आये ......... और अंटी को डांटा – क्यों रो रही थी ?

इतना प्यार था ........... तब उम्र छोटी थी – नए नए गाँव से आये थे ..... पर हम लोगों के लिए हास्य का विषय बन गया था ........ हमने नाम दिया लिवनी अंटी.

शायद १९९६-९८ कि बात है. अंकल कि मुर्त्यु हो गयी. कंधा देने वाला कोई नहीं था. मोहल्ले के लोगों ने मिल कर सरे कर्म किये. आंटी अकेली रह गई. ८० गज का मकान दिल्ली जैसे शहर के बीच में.

ये परिवार वैसे तो शुरू से ही कंजूस था – पर अंकल के जाने के बात तो हद हो गए............. आंटी जेब से एक पैसा ढीला नहीं करती. सब्जी के रेडी पर जा कर रेट पूंछ कर ही रह जाती – पर कुछ नहीं खरीदती. दूध एक ग्लास में ५० ग्राम लाती – और चाय बना कर पीती. हमें दुःख होता. पर क्या कर सकते थे. दिन में एक-टाइम का भोजन तो पड़ोस के गुरूद्वारे से लंगर खा कर गुज़ारा करती. लोग खूब समझते – इतनी जमीन है – इतनी पेंशन आती है – खर्च कर – कौन खायेगा तेरे बाद.. पर बात उसके पल्ले नहीं पड़ती. हम भी होली – दिवाली जाकर – आंटी को कुछ मिठाई इत्यादि देकर मिल आते – और अपनी जिम्मेवारी से मुक्ति पाते.

उन्होंने एक मुसलमान किरायेदार रखा. माता-पुत्र सा व्यवाहर हो गया दोनों में – और हम लोग भी खुश – चलो जो भी आंटी को एक मंजिल तो मिली. बिहार के किसी जिल्ले में उस बंदे का घर था – उसकी शादी पकी हो गई. आंटी उसके साथ बिहार चली गई – मोहल्ले में बिना बताये. १५-२० दिन बाद वो अपनी पत्नी को ले आया.

अब आंटी फिर अकेली........ यानि पुत्र का स्नेह जाने लगा.......... बात बदने लगी..... वो मुसलमान कहेता – कि ये मेरी निजी जिंदगी में दखल देती है. लोगों ने खूब समझाया – किरायेदार है - किराए तक सोचो – और कुछ मत सोचो ..... पर आंटी को कौन समझाए.

मुसलमान किरायेदार को बुलाया गया ........ भाई तू माकन खाली कर दे .........

सामने तो कुछ नहीं बोलता – पर बात खुले लगी – कि मकान तो उसने अपने नाम करवा लिया है – अब वो ही मालिक है – इस मकान का.

मोहल्ले ये बात आग कि तरह फ़ैल गई सभी प्रधान टाइप लोग पहुँच गए. उसको धमकाया गया. आंटी से पूछा वो बोली हाँ कचहरी ले गया था. उसने माफ़ी मांगी और कागज देने के लिए चार दिन का टाइम माँगा.

वो अपनी पत्नी को गांव छोड़ आया – और गायब हो गया. गाँव के जितने दादा किस्म के लोग थे उनको मिलता और कागज कि फोटोकापी दिखाता. मामला हाथ से निकल गया. मोहल्ले वाले देखते रह गए. दादा लोगों के आगे सभी बे-बस थे.

अंटी फिर अकेले रहेने लग गई. आदत वही. कंजूसी वही. क्या कहा जाये. खूब समझाया – मासी अपने पर खर्च कर ले – तेरे बाद कौन.

पर मैं परेशान रहने लगा – अगर भगवान न करे – अंटी को कुछ हो गया तो सेवा कौन करेगा? यक्ष प्रेषण था.

एक दिन समाचार आया कि गुरुद्वारे से आते समय – अंटी का एक्सीडेंट हो गया.

मैं स्तब्ध रह गया?

पर क्या किया जा सकता था..........................

जिस ओरत नै – एक एक पैसा इतनी कंजूसी से खर्च किया – उसका पैसा क्या काम आया.

आज उसका मकान वीरान पड़ा है – बिहारी मुसलमान गायब है. उस अंटी के दूर के समधी चक्कर कटते रहेते हैं. मकान बिक नहीं सकता............ क्या बताएं.

आज पता नहीं क्यों उस आंटी कि याद बार बार आ रही है ........... और ये सब

नहीं लिखना चाहिए था न ???????

पर बक बक है – न लिखते तो प्रेस मैं बैठ कर कई लोगों को सुनाते.

बहरहाल – जय राम जी की.

8 टिप्‍पणियां:

  1. " जिस ओरत नै – एक एक पैसा इतनी कंजूसी से खर्च किया – उसका पैसा क्या काम आया "
    बस यही है ज़िन्दगी का सच और कुछ नहीं ।
    अच्छा लिख रहे हैं ऐसे ही ज़िन्दगी की कहानियाँ लिखते रहिये ।

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  2. जिन्दगी के सच्चे अनुभव हैं ये, इसीलिये अंदर तक सालते हैं। भविष्य के बारे में सोचना चाहिये लेकिन वर्तमान को इग्नोर करके नहीं।
    और भी लिखिये, आपका मन हल्का होगा और हम कुछ सीखेंगे।

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  3. linvi aunty ki kahani to sach me badi marmik sahi. aur sath me ye sandesha bhi ki vartaman me jine ka hai

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  4. संजय जी और उपेन्द्र जी, मैंने लिखा जरूर - पर इस कहानी का या इस शक्सियत का जो भी एक निचोड़ निकलना चाहिए था..... मैं वो नहीं निकाल पाया.

    पर आप दोनों ने 'वर्तमान' का उल्लेख सही किया. वास्तव में भविष्य कुछ नहीं है - सदा वर्तमान में जीना चाहिए.

    और कौशल जी - आपकी बात भी सत्य है कि कंजूस का धन चोर खाते हैं.

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  5. पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हूँ मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए! आजकल सारे बच्चे गाँव में जाना नहीं चाहते और जो आपका बेटा कहता है वो शायद हर बच्चा कहता है तो अब क्या किया जाए!
    बहुत सुन्दर लगी लिंवी आंटी की कहानी! आखिर हमें भविष्य के बारे में सोचना चाहिए ! उम्दा पोस्ट के लिए बधाई!

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  6. मानव मन की गुथ्थियाँ समझना बहुत मुश्किल काम है...न कोई समझा है न कोई समझ पायेगा...लिवनी आंटी की तरह न जाने कितने अंकल आंटियां हमारे चारों और हैं...

    नीरज

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बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.