13 जुल॰ 2010

आवश्यकता है : हेल्परों की

पिछले दो वर्षों से दिल्ली के ओद्योगिक क्षेत्रो में, लगभग हर फैक्ट्री के गेट पर टंगा एक बोर्ड आजकल चर्चा का विषय है। बोर्ड इस प्रकार है: "आवश्यकता है : हेल्परों की" . हेल्परों की कमी से समस्त कुशलवर्ग के साथ मालिक वर्ग भी परेशान है. फेक्टरी के अंदर जो कार्य हेल्पर करते थे वो सिर्फ हेल्पर ही कर सकते हैं, यानि की "जा बेटा चाय ले आ", "जा मशीन पर कपडा मार दे" "ये सामान मशीन से हटा कर सामने लगा दे" "ये पुर्जा फला दुकान से ले आ" - यानी की ये सभी कम रुके तो नहीं पर मुख्या कार्य में बाधा जरूर बन रहे हैं - यानि प्रोडक्शन में कमी. दूसरा भविष्य में येही हेल्पर उसी फैक्ट्री में कुशल कारीगर के रूप में योगदान देते हैं और फिर उस्तादों की श्रेणी में आ जाते हैं.
(पोस्ट को मात्र सुंदर बनाने के लिए इस फोटो का इस्तेमाल किया है.)

इसके लिए जिम्मेवार कारन मुख्यत: जो मुझे समझ आते हैं: दिल्ली की महंगाई, अन्य प्रान्तों में रोजगार के बड़ते अवसर, लड़कों का टेक्निकल कार्यों से रुझान हटना, कुछ भी सीखने की इच्छाशक्ति का ख़त्म होना और बिना कुछ सीखे सब कुछ पा लेने की चाहत। दिल्ली में आज कम से कम ६०००-७००० रुपये कमाने वाला व्यक्ति भी गुजरा नहीं कर पा रहा। ये हेल्पर वर्ग जिसे हम गरिया कर "बिहारी" जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुवे हीन नज़र से देखते हैं - ये पूरी उद्योगिक इकार का मूल अंग होते hain. २५०० तनख्वाह ओवर टाइम मिला कर ४५०० या ५००० तक पहुँच जाती थी. जिसमे से ये लोग ४-५ के ग्रुप में कमरा शेयर करते थे १५०० मासिक भाड़े पर - पर व्यक्ति ५००-६०० रूपये पड़ते थे. खाना सस्ता था. दोपर हर क्षेत्र में ठेले पर १०-१२ रुपे का हो जाता था. और न न करते हुवे भी घर हर माह २००० रुपये के करीब भेज देते थे. पर आज ये सब नहीं हो पा रहा.

दूसरा मुख्या कारन: बिहार, उतराखंड में बढता उद्योगिक रकबा। नितीश के राज में प्रदेश के उद्योगपति मुखर हुए हैं और नयी नयी फैक्ट्री और प्रोजेक्ट ला रहे है - जहाँ पर बेशक दिल्ली से तनख्वाह कम मिलती है पर घर से नजदीकी और खर्चों की कमी के कारन वहां से लेबर का पलायन रुका है। दुसरे उतराखंड में हरिद्वार, रुद्रपुर अच्छे उद्योगिक क्षत्र के रूप में विकसित हुवे हैं और पहाड़ का आदमी - पहाड़ पर ही सिमट गया है।

दूसरी बात, आजकल के नौजवानों में तकनिकी कार्य करने की इच्छा खत्म हो गई है। अब हाथ में मोबाइल फोन आ गए हैं, कक्षा १० सभी पास कर गए है. हाथ काले करने में शर्म आती है- पैसा कमाने के लिए एक अच्छा विकल्प होता है कमीशन. कोई भी कार्य करना और कमीशन खाना. सभी "गुरु भाई" बनना चाहते हैं. चैन स्नाचिंग, चोरी चकारी इत्यादि।

एक बात तो है की हम भविष्य में सफ़ेद कोलर बेरोजगार नौजवानों की अच्छी खासी फौज तैयार कर रहे है.

: बाबा :

1 टिप्पणी:

  1. शुरुआत में यह लेख बहुत अच्छी लय पर था मगर अंत में एक साथ बंद कर दिया दीपक बाबा ! ऐसा लगा जैसे पिक्चर जाने का समय हो गया ! :-)
    बुरा नहीं मानना दीपक बाबा !

    जवाब देंहटाएं

बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.